आखिर मुझे उसकी कमी क्यों खले
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ढलते ढलते जब सूरज बादलों में छिप जाता है
शाम को सूरज ढल रहा है
आखिर मुझे उसकी कमी क्यों खले
चढ़ते सूरज के पुजारी तो लाखों है
ठहर कर कभी सूरज देखता ही नहीं
मुझे पता ना चला पर वो चलता रहा
तेरी याद को तड़पाना क्या खूब आता है
आज जवानी पर इतरानेवाले कल पछतायेगा
समंदर में समा जाता है सूरज
साझ का वक्त हो और साथ हो तुम्हारा