न जाने किस दरबार का चिराग़ हूँ मैं
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निकाल दिया उसने मुझे अपनी ज़िन्दगी से भीगे कागज़ की तरह
ज़रा सी वक़्त ने करवट क्या ली
हिम्मत नहीं इतनी की दस्ताने ज़िन्दगी सुना सकें अपनी
अपनी पीठ से निकले खंजरों को जब गिना मैंने
मिलता तो बहुत कुछ है इस ज़िन्दगी में
लोग कहते है समझो तो खामोशियाँ भी बोलती हैं
ज़िन्दगी में कुछ ज़ख्म ऐसे होते है जो कभी नहीं भरते
लोग कहते हैं हमसे तुम बहुत बदल गए हो
न जाने किस दरबार का चिराग़ हूँ मैं
ज़िन्दगी की हक़ीक़त को बस इतना ही जाना है