अपनी पीठ से निकले खंजरों को जब गिना मैंने
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अपनी पीठ से निकले खंजरों को जब गिना मैंने
ज़रा सी वक़्त ने करवट क्या ली
हिम्मत नहीं इतनी की दस्ताने ज़िन्दगी सुना सकें अपनी
निकाल दिया उसने मुझे अपनी ज़िन्दगी से भीगे कागज़ की तरह
ज़िन्दगी में कुछ ज़ख्म ऐसे होते है जो कभी नहीं भरते
ये दिन भी क़यामत की तरह गुज़रा है
न जाने किस दरबार का चिराग़ हूँ मैं
लोग कहते है समझो तो खामोशियाँ भी बोलती हैं
लोग कहते हैं दु:ख बुरा होता है जब भी आता है रुलाकर जाता है
गुज़र जायेगा ये दौर भी ज़रा सब्र तो रख